शरीर  की साधना

 

 इस शरीर मे न तो देवता का निर्विरोध अधिकार है, न संत की अविचल शान्ति । अभी तक यह अतिमानव की अवस्था का नौसिखिया- भर है ।

 

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 हे मेरे मधुर स्वामी, परम 'सत्य'! मैं अभीप्सा करती हू कि मैं जो भोजन लेती हू वह मेरे शरीर के समस्त कोषाणुओं मे तेरा सर्व-ज्ञान, तेरी सर्व- शक्ति और तेरा सर्व-कल्याण भर दे ।

 

२१ सितम्बर, १९५१

 

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 मेरा शरीर तभी अतिमानसिक शरीर बनेगा जब मनुष्यों की प्रगति के लिए यह जरूरी न रहेगा कि यह उनके शरीर जैसा हो ।

 

२ अगस्त, १९५२

 

 यह तथ्य है कि ' परम देव ' ने हमेशा शरीर को रूपान्तरित करने और उसे धरती पर अपनी अभिव्यक्ति का एक उपयुक्त यंत्र बनाने के उद्देश्य से भौतिक शरीर धारण किया । लेकिन यह भी एक तथ्य है कि अभी तक वे यह करने मे असफल रहे हैं और किसीने-किसी कारण उन्हें रूपान्तर के कार्य को अधूरा छोड्कर अपना भौतिक शरीर त्यागना पंडा ।

 

       भगवान् जिस शरीर दुरा अपने- आपको अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे सम्पूर्ण रूपान्तर साधित होने तक बनाये रखें, इसके लिए जरूरी है कि ज्यादा नहीं तो कम-से-कम एक व्यक्ति सामंजस्य, बल, सचाई, सहनशीलता, नि:स्वार्थता, भौतिक में सन्तुलन की आवश्यक शर्तों को पूरा करे । यह शरीर जिसमें भगवान् अवतरित होते हैं, यह केवल सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु ही न हो, बल्कि अपवादिक रूप से एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज हो, स्वयं भागवत ' कार्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण, बल्कि यूं कहें, यह शरीर धरती
 


पर भागवत 'कार्य ' का प्रतीक और मूर्त रूप हो जाये ।

 

३ अक्तूबर १९५२

 

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मुझे काम कभी नहीं थकाता; जब मैं असन्तोष, अवसाद, सन्देह, गलत- फहमी और दुर्भावना के वातावरण में काम करने के लिए बाधित होती हूं, तो एकएक कदम आगे बढ़ाने में बहुत अधिक प्रयास की जरूरत होती है और शरीर पर उसका असर दस वर्ष के सामान्य काम से ज्यादा होता हैं ।

 

२० सितम्बर १९५३

 

पिछले कुछ दिनों से सवेरे जागते समय मुझे एक बड़ा अजीब-सा संवेदन होता है कि मैं एक ऐसे शरीर में प्रवेश कर रही हूं जो मेरा नहीं है-मेरा शरीर सबल और स्वस्थ, ऊर्जा ओर जीवन से भरा, लोचदार और सामंजस्यपूर्ण है, लेकिन इस शरीर में इनमें से कोई गुण नहीं होता; उसके साथ सम्पर्क पीड़ा देता है; मुझे अपने- आपको उसके अनुकूल बनाने में बहुत कठिनाई होती है और इस बेचैनी को दूर करने में बहुत समय लगता है।

 

 १४ जनवरी १९५४

 

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 कल रात फिल्म देखने के बाद मुझे जो अनुभूति हुई थी यह निर्णायक रूप से उसके बाद आयी । मैंने बहुत तीव्रता से यह अनुभव किया कि मेरे बालक स्वतंत्र काम करने योग्य हो गये हैं और अब उन्हें अपने कार्य को अच्छी तरह करने के लिए मेरे भौतिक हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है । इतना काफी है कि मेरी उपस्थिति उनके बीच अन्तःप्रेरणा और पथ-प्रदेशन के रूप मैं रहे ताकि वे लक्ष्य को स्पष्ट रूप से देख सकें और भटक न जायें । स्वभावत: इसका परिणाम होता है अपने भीतर शरीर का प्रत्याहार ताकि भौतिक रूप सें शरीर के रूपान्तर पर एकाग्र हुआ जा सके । अब मैं बाहरी रूप से उन्हें काम करने के अपने तरीकों के अनुसार चीजें करने

 

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के लिए छोड़ सकतीं हूं और अपनी उपस्थिति को घटाकर न्यूनाधिक रूप से अदृश्य सृजनशील अंतःप्रेरणा और चेतना की भूमिका में रखूं ।

 

१० मई, १९५४

 

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 शरीर बार-बार और मर्मस्पर्शी सचाई के साथ दोहराता है : '' मैं किसी से भी कोई भी चीज क्यों मांगूं? अपने- आपमें मैं कुछ नहीं हूं, मे कुछ नहीं जानता, मैं कुछ नहीं कर सकता । जब तक सत्य मुझे भेदकर मुझे आदेश न दे, मैं छोटे -सेछोटे निर्णय लेने और यह जानने मे असमर्थ हूं कि बहुत ही नगण्य परिस्थितियों मे भी करने लायक और ज़ीने लायक सबसे अच्छी चीज क्या है । क्या मैं कभी इस हद तक रूपान्तरित होने के योग्य बनूंगा कि मुझे जो होना चाहिये वह होऊं और जो धरती पर अभिव्यक्त होना चाहता है उसे अभिव्यक्त करूं? '' गहराइयों से निर्विवाद निश्चिति के साथ हमेशा तेरा यह उत्तर क्यों आता है, प्रभो : '' अगर तुम न कर सको तो धरती पर ओर कोई शरीर इसे न कर सकेगा? '' बस, एक ही निष्कर्ष निकलता है : मैं अपने प्रयास में लगी रहूंगी, हार न मानूंगी, मैं मृत्यु या विजय तक लगी रहूंगी ।

 

८ सितम्बर, १९५४

 

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 मेरे प्रभो, तू मुझसे जो करवाना चाहता था वह मैंने कर दिया । ' अतिमानस ' के दुरा खोल दिये गये हैं और ' अतिमानसिक चेतना ', ' ज्योति ' और 'शक्ति ' की धरती पर बाढ़ आ गयी है ।

 

      लेकिन अभी तक मेरे चारों ओर के लोग इससे अनजान हैं-उनकी चेतना में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया और चूंकि वे मेरी बात पर विश्वास करते हैं इसीलिए यह नहीं कहते कि सचमुच कुछ नहीं हुआ । और फिर बाहरी परिस्थितियां पहले जैसी थीं उससे अधिक कठोर हैं और ऐसा लगता हे कि पहले से भी अधिक अलंध्य कठिनाइयां उठती आ रही हैं ।

 

        अब चूंकि अतिमानस यहां है-इसके बारे में मुझे पूरा विश्वास हे, भले सारी धरती पर उसे जानेवाली मैं अकेली ही क्यों न होऊं-तो क्या

 

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इसका मतलब है कि इस शरीर का लक्ष्य पूरा हो गया है और उसकी जगह किसी और शरीर को इस काम को करना है? मैं तुझसे पूछती हूं और उत्तर मांगती हूं-कोई ऐसा संकेत जिससे मुझे निश्चित रूप से पता लग जाये कि अब भी मेरा काम हैं और मुझे समस्त विरोधों, समस्त निषेकों के होते हुए भी जारी रखना हे ।

 

       संकेत चाहे कुछ भी हो, इसकी मुझे परवाह नहीं है पर होना चाहिये स्पष्ट ।

 

मैं अब तक ''मैं '' नहीं कह सकती, क्योंकि जब मैं ''मैं '' कहती हू तो लोग मेरे शरीर के बारे में सोचते हैं, और मेरा शरीर अब तक सचमुच '' मैं '' नहीं है, उसका रूपान्तर अब तक नहीं हुआ है, और यह बात उनके मनों में गड़बड़ पैदा करती है । इसके अलावा, मैंने हमेशा यह अनुभव किया है कि भौतिक चेतना मे जीवन और निरंतर नम्रता बनाये रखने के लिए अपनी अपूर्णता देखने की मेरे शरीर की यह वृत्ति अनिवार्य थी ।

 

      जब रूपान्तर सर्वांगीण हो जायेगा, तब मैं कह सकूंगी, उससे पहले नहीं ।

 

२१ अक्तुबर, १९५५

 

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हे दिव्य 'प्रकाश ', अतिमानसिक ' सद्वस्तु ' :

 

      इस भोजन के साथ सारे शरीर में प्रवेश कर, प्रत्येक कोषाणु में प्रवेश कर । हर अणु के अन्दर अपने- आपको प्रतिष्ठित कर; वर दे कि हर चीज पूरी तरह सच्ची, निष्कपट और ग्रहणशील बन जाये, ऐसी सभी चीजों से मुक्त हो जो अभिव्यक्ति मे बाधा देती हैं, संक्षेप में, मेरे शरीर के उन सभी भागों को जो अभी तक ' तू ' नहीं हुए हैं, अपनी ओर खोल ।

 

१६ जनवरी, १९५८

 

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और शरीर परम प्रभु से कहता है : '' तुम जो चाहते हो कि मैं बनूं, मैं वही

 

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बनूंगा, तुम जो चाहते हो कि मैं जानु, मैं उसे मानूंगी, तुम जो चाहते हो कि मैं करूं, उसे मैं करुंगा । ''

 

३ अक्तुबर १९५८

 

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लेकिन इस शरीर को व्यायाम की जरूरत है और पीढ़ियों पर चढ़ना- उतरना वास्तव में बहुत अच्छा व्यायाम है । और फिर उसे मेरे काम में सहयोग देने की आदत है ओर अगर उसकी कठिनाइयों के कारण कोई परिवतंन किया जाये तो उसे दुःख होगा ।

 

      अतः चीजें जैसी हैं वैसी ही चलती रहेगी और जब कठिनाइयों में से उसके मुक्त होने का समय आयेगा, तब कठिनाइयां गायब हो जायेगी ।

 

२७ फरवरी, १९६१

 

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           क्या आप कृपया मुझे अपने नये शरीर मे दर्शन देगी ? मेरा ख्याल है कि यह आपकी सहायता से सम्भव होगा।

 

 सहायता तो हमेशा रहती है लेकिन उसे ज्यादा तीव्र कर दिया जायेगा, क्योंकि तुम्हें काफी लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार रहना चाहिये ।

 

जनवरी, १९६३

 

       मैं आपको आपके नये शरीर में देखना चाहता हूं तब तक वर लीजिये कि आप जो कुछ दें उसे ग्रहण करके आत्मसात् कर सकूं ?

 

 मेरा ख्याल है तुम्हारा मतलब मेरे नये रूप या रूपान्तरित शरीर से है । क्योंकि नये शरीर के लिए, मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानती जो ऐसा पूर्ण, जीवित शरीर तैयार कर सके जिसमें मैं अपनी वर्तमान चेतना को खोये बिना कम-से-कम कुछ अंश में प्रवेश कर सकूं । हां, निश्चय ही यह

 

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अपेक्षाकृत ज्यादा आसान प्रक्रिया होती, लेकिन इस शरीर के कोषाणुओं के प्रति यह न्यायोचित न होगा जो उत्साह से कितने भरे दूं, और सहर्ष रूपान्तर की दुष्कर प्रक्रिया के लिए अपने- आपको प्रस्तुत कर रहे हैं । बहरहाल, जैसा मैं पहले ही कह चुकी हू, तुम्हें उसके लिए लम्बे अरसे तक प्रतीक्षा करने और बहुत-से जन्मदिन बीतते हुए देखने के लिए तैयार रहना चाहिये । निश्चय हो, यह बहुत अच्छा है और मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं ।

 

२५ जनवरी १९६३

 

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 मेरे बालकों में से हर एक के लिए

 

       वे जब कभी मिथ्यात्व के आवेग में आकर सोचते, बोलते या कार्य करते हैं, तो उसका मेरे शरीर पर प्रहार के जैसा असर होता है ।

 

१६ जुलाई १९७२

 

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 सच कहूं तो मैं बिना पसंद-नापसंद के हर चीज खा सकती हूं , लेकिन चूंकि मजे पर चुनाव के लिए काफी कुछ होता है, इसलिए मैं वही चीज खाना पसंद करती हूं जिसे शरीर स्वीकार करता और आसानी से हजम करता हैं ।

 

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 ऐसा कोई रोग नहीं जो मैंने न भोगा हो । मैंने सभी रोगों को अपने शरीर पर उनकी गति को जान सकने और भौतिक रूप से उनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए लिया हैं, ताकि मैं उन पर क्रिया कर सूक । लेकिन चूंकि मेरे शरीर में भय नहीं है और वह उच्चतर दबाव को उत्तर देता हे, इसलिए मेरे लिए उनसे छुटकारा पाना ज्यादा आसान होता है ।
 

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